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"Religion is the opium of the people" "Die Religion ... ist das Opium des Volkes" -Karl Marx |
Author : Abhishek Mishra ; Lucknow 14 Aug 2019
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काफी दिनों से कुछ भी लिखने का मन नही हो रहा ....खासकर निरर्थक राजनीतिक विषयों पर तो बिल्कुल भी नही.....सामाजिकता इत्यादि पर कभी कुछ ख्यालात मन में आया भी तो अभिव्यक्ति से खासा परहेज बरतने की कोशीश रहती है। कई बार मन में आया कि कहीं इससे मेरी रचनात्मक का ह्रास तो नही हो रहा..........इसी जद्दोजहद में सुबह से कोई सटीक विषय ढूंढ रहा था, आखिरकार निशा ढलते ही एक मसला मिल ही गया....पड़ोस की बिल्डिंग में गणेश पूजन के उपलक्ष्य में कीर्तन -महिला संगीत का कार्यक्रम था सो आज दो चार घण्टे की अध्ययन साधना बाधित होना स्वाभाविक ही था, यहां तक तो उन सब का मौलिक अधिकार था अपने धर्म को मानने एवं धार्मिक कर्मकांड-प्रथाओं को अमल करने का ......
परन्तु इसके बाद शुरू हुआ हमारे और हम जैसे तमाम अन्य पड़ोसियों के मौलिक अधिकार का हनन अर्थात हमारे नींद में दखलनदाजी जब रात को 11 12 बजे के बाद लाडस्पीकर पर भोजपुरी फिल्मी देशभक्ति गानों की श्रृंखला शुरू हुई। 1 बजने को थे लेकिन एक के बाद एक ........कमरिया .....आरा डिस्ट्रिक्ट....हर करम अपना करेंगे टाइप कानफोड़ू कर्कशता की श्रृंखला जारी थी, थोड़ी असुविधा हुई सो उठकर बालकॉनी में टहलते हुए मैं विचार करने लगा कि आखिर ये सब कब से धर्मिक परम्परा-प्रथाओं का हिस्सा बन गया...............
तभी अचानक याद आया कल तो बकरीद है तमाम बेजुबानों की कुर्बानी होगी कुछ हमारे जैसे गंगा जमुनी तहजीब के हिमायती इसे उनकी आवश्यक धर्मिक प्रथा मानकर बधाई दें देंगे तो कुछ इसकी पाबंदी को लामबंद होंगे...............सोशल मीडिया पर दोनों वर्गों के धुरंधर विद्यमान हैं, आइये इन दोनों धार्मिक कुरीतियों का हल तलाशते हैं कि हम अपनी सामजिक बन्धुता के मद्दे नजर इन कानफोड़ कर्कश अनायास गीतों एवं बेजुबानों की कुर्बानी जैसी कुप्रथाओं के खिलाफ कैसे और कब खड़े होने की हिम्मत जुटा पाएंगे........
चिंतन मंथन एवं सुझावों सहित आपकी टिप्पणियों के सादर स्वागत एवं हार्दिक अभिनंदन हैं.....
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